समय की मुस्कुराहट और मेरे अपने कंपन के कारण मेरी आँख खुल गई, और उन्हीं दिनों मैंने लिखा-
दु:खांत यह नहीं होता कि रात की कटोरी को कोई ज़िंदगी के शहद से भर न सके और वास्तविकता के होंठ कभी उस शहद को चख न सकें –
दु:खांत यह होता है कि जब रात की कटोरी पर से चन्द्रमा की क़लई उतर जाए और उस कटोरी में पड़ी हुई कल्पना कसैली हो जाए ।
दु:खांत यह नहीं होता कि आप की किस्मत से आप के साजन का नाम-पता न पढ़ा जाए और आप की उम्र की चिट्ठी सदा रुलती रहे ।
दु:खांत यह होता है कि आप अपने प्रिय को अपनी उम्र की सारी चिट्ठी लिख लें और फ़िर आप के पास से आप के प्रिय का नाम-पता खो जाए …
दु:खांत यह नहीं होता कि ज़िन्दगी की लंबी डगर पर समाज के बंधन अपने कांटे बिखेरते रहें और आप के पैरों में से सारी उम्र लहू बहता रहे ।
दु:खांत यह होता है कि आप लहू-लूहान पैरों से एक उस जगह पर खड़े हो जाएं, जिस के आगे कोई रास्ता आप को बुलावा न दे ।
दु:खांत यह नहीं होता कि आप अपने इश्क के ठिठुरते शरीर के लिए सारी उम्र गीतों के पैरहन सीते रहें ।
दु:खांत यह होता है कि इन पैरहनों को सीने के लिए आप के पास विचारों का धागा चुक जाए और आप की क़लम-सूई का छेद टूट जाए …
– हिंदी में अनुवादित “रसीदी टिकट” में से साभार
March 23, 2008 at 4:54 am |
nice to read this here…once again.thanks
nilam doshi
http://paramujas.wordpress.com