हे नाथ ! तू मेरी इतनी विनती
हे, नाथ ! तू मेरी इतनी विनती स्वीकार कर;
एक बार स्वीकार कर !
मेरे हृदय में बस जा, अब लौट कर न जा !
जो दिन तेरे वियोग में गया, वह धूलि में मिल गया !
अब तेरे ही प्रकाश में जीवन-कलिका को खिलाने के लिए
मैं दिनानुदिन जाग रहा हूँ ।
किस उन्माद में, किस खोज में, मैं इधर-उधर की राहों पर
भटकता रहा ? कौन जाने ?
अब मेरे हृदय पर कान रख और अपनी ही आवाज़ सुन !
मेरे पास जो पाप-धन या छल-बल शेष दिखाई दे,
उस के कारण मुझे मत लौटा दे
उसे आग से भस्म कर दे !
अनुवाद: सत्यकाम विद्यालंकार, इंदु जैन
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